मैं अक़्स बन अश्कों में बहता चला जाता हूँ
रात बीत जाती कई वक़्त दर वक़्त
पर कही मैं रुका का रुका रह जाता हूँ
मैं अक़्स बन अश्कों में बहता चला जाता हूँ
वो शब्द हूँ
जो वाक्य को तरसा रह जाता हूँ
मैं अक़्स बन अश्कों में बहता चला जाता हूँ
एक बात है
पर सिर्फ बात है,बातों की क्या बिसात है
जो बातों से घिर के भी हमराज़ रह जाता हूँ
मैं अक़्स बन अश्कों में बहता चला जाता हूँ
मिट्टी हूँ,
मिट्टी बनने को,मिट्टी में मिल जाता हूँ
जो अक़्स बन अस्कों में बहता चला जाता हूँ
मैं अक़्स बन अश्कों में बहता चला जाता हूँ।। 2।।
Thursday, 16 August 2018
तेरे अक़्स से मेरे अश्क़ तक...✍️
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शुरुआत..।😊

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आँखे जो निहारती थी कभी पूरे महकमे में हमें, शहरी धुंध में कहीं खो गई है, शहर से खरीद कर चुटकी भर नींद हमे ज़िंदा ऱख,खुद सो गई है ।।
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अभी तो शुरुआत है, बाँकी पूरी रात है..।🙏
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